हैदराबाद स्थित आयकर (IT) विभाग की ताज़ा जाँच ने भारतीय क्रिप्टो बाज़ार के एक कम-चर्चित मगर निर्णायक पहलू पर रोशनी डाली है। विभाग के अनुसार, कई घरेलू एक्सचेंज अपने ग्राहकों द्वारा जमा किए गए टोकन को “लिक्विडिटी बढ़ाने” या “रिटर्न जनरेट” करने के नाम पर उधार देने, आंतरिक/बाहरी ट्रेडिंग और स्टेकिंग पूल में लगाते हैं और यह सब अधिकतर यूज़र की जानकारी के बिना होता है। शर्तें और नियम (T&Cs) अक्सर यह कहकर रास्ता खोल देते हैं कि “पार्क किए गए टोकन का उपयोग एक्सचेंज के विवेक पर होगा।” निवेशक मूलतः केवल बेचने का अधिकार रखते हैं, मुनाफ़े में हिस्सेदारी का नहीं।
टैक्स चोरी के पैटर्न भी
कर अधिकारियों को जाँच के दौरान टैक्स चोरी के पैटर्न भी मिले, विशेषकर टेथर (USDT) में आर्बिट्राज करने वाले ट्रे़डर्स जिन्होंने ऑटोमेटेड बॉट्स से छोटे-छोटे दामों के फ़र्क का लाभ लिया, पर आय की सही रिपोर्टिंग नहीं की। वित्त अधिनियम, 2022 के तहत जोड़ा गया धारा 115BBH, 1 अप्रैल 2023 से वर्चुअल डिजिटल एसेट (VDA) ट्रांसफ़र पर 30% कर और सीमित कटौतियाँ तय करता है; फिर भी कई मामलों में आय छिपाने या घाटे के साथ समायोजन की कोशिशें दिखीं। हाल के महीनों में ऐसे मामलों पर विभाग ने नोटिस भेजने और तलाशी-जब्ती की कार्रवाइयाँ तेज़ की हैं।
वित्तीय दृष्टि से इसे “rehypothecation” और “commingling” जैसी जोखिम भरी प्रथाएँ माना जाता है—ठीक वही चेतावनी जो वैश्विक क्रिप्टो गिरावटों, खासकर FTX प्रकरण के बाद ज़्यादा मुखर हुई। भारतीय संदर्भ में चुनौती यह है कि अभी कोई स्पष्ट, एक्सचेंज-स्तरीय नियम पुस्तिका इन प्रथाओं को सीधे प्रतिबंधित नहीं करती; इससे प्रवर्तन सीमित हो जाता है और जवाबदेही प्रूफ़-ऑफ़-रिज़र्व जैसी स्वैच्छिक पारदर्शिता पहलों पर छोड़ दी जाती है।
उलझी हुई नियामकीय पृष्ठभूमि
नियामकीय पृष्ठभूमि भी उलझी हुई है। रिज़र्व बैंक ने वर्षों से वर्चुअल करेंसी के जोखिम—ऑपरेशनल, कानूनी, ग्राहक-सुरक्षा—पर सार्वजनिक सावधानियाँ जारी की हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में बैंकों पर लगे पुराने निषेध को निरस्त किया। नतीजा: क्रिप्टो अपने-आप में गैरकानूनी नहीं, पर कानूनी मुद्रा भी नहीं; कर और एएमएल/केवाईसी अनुपालन अलग से लागू हैं (FIU-India पंजीकरण, रिपोर्टिंग इत्यादि)। ऑफ़शोर प्लेटफ़ॉर्मों पर सख़्ती और FIU के नोटिसों/पंजीकरणों ने परिदृश्य बदला है—पर ग्राहक परिसंपत्तियों के पुनःउपयोग पर ठोस, एकरूप मानक अभी बनने शेष हैं।
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उपभोक्ता-हित के कोण से यह तस्वीर और महत्वपूर्ण हो जाती है। औसत निवेशक यह मानकर चलता है कि “एक्सचेंज पर रखा टोकन मेरे वॉलेट में सुरक्षित पड़ा है”; जबकि वास्तविकता यह हो सकती है कि वही टोकन किसी और को उधार दिया गया हो, किसी लिक्विडिटी पूल में जोड़ा गया हो, या एक्सचेंज के आंतरिक खातों में मिला-जुला हो।
अगर बीच में कोई झटका, हैक, कस्टोडियल संकट या बाज़ार-ध्वंस जैसा हादसा हो जाए, तो रिकवरी की कतार में सबसे पीछे अक्सर रिटेल यूज़र ही होते हैं। इसलिए कई विशेषज्ञ “प्रूफ़-ऑफ़-रिज़र्व + प्रूफ़-ऑफ़-लायबिलिटीज़” की नियमित, ऑडिटेड रिपोर्टिंग और ग्राहक परिसंपत्तियों के पृथक्करण (सेग्रिगेशन) को न्यूनतम मानक मानने की दलील देते हैं।
निष्कर्ष
हैदराबाद से उठी यह कहानी एक व्यापक सत्य उजागर करती है—भारत में क्रिप्टो का कर-अनुपालन तो तेज़ी से संस्थागत हो रहा है, पर कस्टडी, पारदर्शिता और ग्राहक-सुरक्षा के बुनियादी मानदंड अभी विकासशील अवस्था में हैं।
जब तक स्पष्ट नियम एक्सचेंजों को ग्राहक परिसंपत्तियों के पुनःउपयोग, जोखिम-खुलासे और मुनाफ़ा-साझेदारी पर बाध्य नहीं करते, निवेशकों के लिए समझदारी की राह यही है: (1) T&Cs ध्यान से पढ़ें—क्या आपका टोकन एक्सचेंज “अपने विवेक” से तैनात कर सकता है? (2) दीर्घकालिक होल्डिंग के लिए स्व-कस्टडी पर विचार करें; (3) कर-नियमों (धारा 115BBH, TDS) का पालन करें; और (4) उन प्लेटफ़ॉर्मों को तरजीह दें जो प्रूफ़-ऑफ़-रिज़र्व/लायबिलिटीज़, सेग्रिगेटेड कस्टडी और स्वतंत्र ऑडिट जैसी प्रथाओं को सार्वजनिक व नियमित रखते हैं।
नीति-निर्माताओं के लिए संदेश उतना ही स्पष्ट है: तेज़ी से बढ़ते इस सेक्टर में “पैसे आपके, जोखिम आपका” का समीकरण तभी बदलेगा, जब नियम ग्राहक के पक्ष में पारदर्शिता और जवाबदेही को अनिवार्य बना देंगे।
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