भारत और क्रिप्टो का रिश्ता विरोधाभासों से भरा है। एक तरफ सरकार और रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) की कड़ी निगरानी और कर नीति, तो दूसरी तरफ नागरिकों की डिजिटल संपत्तियों में तेजी से बढ़ती दिलचस्पी। लंबे समय तक यह रिश्ता दोस्त और दुश्मन के मिश्रण जैसा रहा है। लेकिन अब एक नया अध्याय खुलने जा रहा है और वह है भारत का अपना स्टेबलकॉइन।
हाल ही में ब्लॉकचेन प्लेटफॉर्म Polygon और घरेलू फिनटेक स्टार्टअप Anq ने साझेदारी कर एसेट रिज़र्व सर्टिफिकेट (ARC) नामक एक भारतीय स्टेबलकॉइन के विकास की घोषणा की है। यह पहल न सिर्फ तकनीकी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इससे भारत की मौद्रिक नीति और डिजिटल भुगतान पारिस्थितिकी में गहरी क्रांति आ सकती है।
स्टेबलकॉइन जरूरी क्यों है?
क्रिप्टोकरेंसी जैसे बिटकॉइन और एथेरियम की सबसे बड़ी कमजोरी है अस्थिरता। आज कीमत आसमान छू सकती है और कल धरातल पर आ सकती है। ऐसे में रोजमर्रा के लेनदेन या दीर्घकालिक निवेश में इनका उपयोग सीमित है।
यहीं से स्टेबलकॉइन्स की जरूरत जन्म लेती है, ऐसे डिजिटल टोकन जो किसी स्थिर परिसंपत्ति जैसे डॉलर, सोना या राष्ट्रीय मुद्रा से जुड़े होते हैं। उदाहरण के तौर पर, USDT (Tether) और USDC (Circle) दोनों अमेरिकी डॉलर से पेग्ड हैं और लगभग 1 डॉलर के बराबर रहते हैं।
यह मॉडल दो बड़े लाभ देता है।तेज और कम लागत वाले लेनदेन और मूल्य स्थिरता जिससे इन्हें भुगतान और बचत दोनों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। आज वैश्विक स्टेबलकॉइन मार्केट का आकार करीब $250 बिलियन है और इसका 98% हिस्सा डॉलर आधारित है।
हालांकि, दिलचस्प बात यह है कि इनका 80% उपयोग अमेरिका के बाहर होता है, जिसमें भारत अग्रणी है। अनौपचारिक अनुमानों के मुताबिक, भारत में करीब 31 करोड़ से अधिक यूजर्स किसी न किसी रूप में स्टेबलकॉइन्स का उपयोग करते हैं।
भारत की सबसे बड़ी विडंबना क्या है?
भले ही भारतीय उपयोगकर्ता सबसे अधिक सक्रिय हैं पर स्टेबलकॉइन लेनदेन का लगभग पूरा ढांचा डॉलर पर टिका है। इसका नतीजा यह है कि भारतीय पूंजी का एक बड़ा हिस्सा देश से बाहर बहता है। डॉलर सिस्टम को मजबूत करता है जबकि रुपया सिस्टम को कमजोर करता है।
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इसके अलावा, भारतीय एक्सचेंजों पर USDT अक्सर 4-5% प्रीमियम पर ट्रेड करता है, क्योंकि RBI के कड़े नियमन के चलते विदेशी स्टेबलकॉइन्स की आपूर्ति सीमित है। इस वजह से रेमिटेंस और क्रॉस-बॉर्डर ट्रांसफर के लिए यह अधिक आकर्षक बन जाता है। लेकिन यह आर्थिक रिसाव दीर्घकालिक रूप से अस्थिर है।
ARC: एक समाधान, दो संरचनात्मक लाभ
पॉलीगॉन और अनक का प्रस्तावित ARC मूल रूप से भारतीय संपत्तियों जैसे सरकारी प्रतिभूतियों (G-Secs) और ट्रेजरी बिल्स से बैक्ड होगा।
यहां से दो प्रमुख फायदे सामने आते हैं। पहला, रुपये देश के भीतर रहेंगे, जिससे वित्तीय लिक्विडिटी और बाजार स्थिरता में सुधार होगा। दूसरा, जिससे सरकारी बॉन्ड मार्केट गहराई प्राप्त करेगा।
यह कदम केवल तकनीकी नवाचार नहीं, बल्कि वित्तीय स्वावलंबन (financial sovereignty) की दिशा में एक निर्णायक कदम हो सकता है।
एशिया में बढ़ता घरेलू स्टेबलकॉइन मॉडल
जापान पहले ही येन-बैक्ड स्टेबलकॉइन्स का पायलट शुरू कर चुका है। सिंगापुर और हांगकांग भी समान प्रयोग कर रहे हैं।
इन देशों ने महसूस किया है कि डॉलर निर्भर डिजिटल करेंसी व्यवस्था भविष्य में मौद्रिक नीतियों की स्वतंत्रता को सीमित कर सकती है।
भारत यदि अब भी साइडलाइंस पर बैठा रहा, तो न केवल तकनीकी बल्कि भू-आर्थिक दृष्टि से भी पिछड़ सकता है।
अवसर और खतरे
लेकिन तस्वीर के दूसरे हिस्से पर भी नजर डालना जरूरी है। स्टेबलकॉइन्स की खूबी ही उनका जोखिम है।
अगर निजी कंपनियों को अपने वर्जन लॉन्च करने की खुली छूट मिलती है, तो वे पारंपरिक बैंकिंग ढांचे के समानांतर एक ‘शैडो पेमेंट इकोसिस्टम’ बना सकती है।
इससे मौद्रिक नियंत्रण और वित्तीय स्थिरता पर सरकार का प्रभाव कमजोर पड़ सकता है।
चीन ने हाल ही में इसी खतरे को देखते हुए अलीबाबा की Ant Group और JD.com जैसी कंपनियों को स्टेबलकॉइन लॉन्च करने से रोका, भले ही उसने इन्हें विनियमित करने के लिए नया कानून पारित किया था।
भारत के लिए सबक स्पष्ट है। तकनीकी नवाचार को प्रोत्साहन तो मिले, लेकिन स्पष्ट नियामक ढांचे और केंद्रीय बैंक की निगरानी के साथ।
निष्कर्ष
भारत यदि ARC जैसे रुपया-बैक्ड स्टेबलकॉइन को विवेकपूर्ण ढंग से अपनाता है, तो यह न केवल डॉलर आधारित क्रिप्टो पर निर्भरता कम करेगा, बल्कि डिजिटल इंडिया के अगले चरण में स्मार्ट फाइनेंस इंडिया की नींव रख सकता है।
यह वित्तीय समावेशन, भुगतान दक्षता और अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा, तीनों को एकसाथ आगे बढ़ाने वाला कदम हो सकता है। मगर यह तभी संभव है जब नीतिगत स्पष्टता, पारदर्शिता और नवाचार में संतुलन बना रहे।
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