Polygon के सह-संस्थापक संदीप नेलवाल ने हालिया वक्तव्यों और पैनल चर्चाओं में बार-बार संकेत दिया है कि स्टेबलकॉइन्स, विशेषकर डॉलर-पेग्ड स्टेबलकॉइन्स, पारंपरिक मुद्रा और ग्लोबल पेमेंट चैनलों पर असर डाल रहे हैं।
नेलवाल का तर्क दो स्तरों पर मजबूत दिखता है: एक तो टेक्नोलॉजी-आधारित उपयोगिता (कम फीस, तेज़ ट्रांज़ैक्शन) और दूसरा नियामकीय अनुकूलता विशेषकर अमेरिका में, जिससे डॉलर-बेस्ड डिजिटल संपत्तियाँ तेजी से अपनाई जा रही है।
उपयोगिता और स्वीकार्यता तकनीकी तौर पर संवर्द्धित लेयर-2 नेटवर्क जैसे Polygon पर stablecoins की वृद्धि से स्पष्ट होता है। छोटे-मध्यम लेन-देन और क्रॉस-बॉर्डर भुगतान में तात्कालिकता और लागत लाभ ने व्यापक उपयोग को प्रेरित किया है ।
यही वजह है कि कुछ stablecoins का मार्केट-कैप और ऑन-chain गतिविधि तेज़ी से बढ़ी है। इस तथ्य को Polygon स्वयं और नाइलवाल के प्रकाशित विचारों में रेखांकित किया गया है।
नियामकीय माहौल विशेष महत्व रखता है। यूएस में हाल के वर्षों में stablecoin-दाताओं के प्रति नीति-विकास, ऑडिट और रिज़र्व-डिस्क्लोज़र पर चर्चा ने कुछ निवेशकों और संस्थागत खिलाड़ियों को अमेरिकी-निर्धारित डिजिटल डॉलर विकल्पों की ओर आकर्षित किया है।
यह प्रवृत्ति वैश्विक मुद्रा-प्रयोग में डॉलर की उपस्थिति को और मजबूत कर सकती है, क्योंकि डिजिटल डॉलर या डॉलर-पेग्ड टोकन पारंपरिक बैंकिंग प्रणालियों की अपेक्षा तेज़, सस्ती और इंटरऑपरेबल भुगतान फॉर्म प्रदान करते हैं।
नेलवाल का यह कथन कि डॉलर “short to medium term” में और शक्तिशाली होगा, इस परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है कि अगर वैश्विक बाजार और संस्थागत कोष डॉलर-पेग्ड stablecoins का उपयोग बढ़ाते हैं, तो वास्तविक अर्थ में लोग और फर्म डॉलर-पर आधारित डिजिटल साधनों के जरिए भुगतान और भंडारण को प्राथमिकता देंगे। इससे मांग बढ़ेगी और डॉलर-सेंट्रिक वित्तीय इन्फ्रास्ट्रक्चर का प्रभाव स्थिर रहेगा।
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पर यह पूरी कहानी नहीं है। यहां कई नीतिगत और आर्थिक चुनौतियाँ भी जुड़ी हैं। पहली चुनौती है मौद्रिक संप्रभुता। यदि किसी देश के नागरिक और कारोबार बड़े पैमाने पर डॉलर-स्टेबलकॉइन्स का उपयोग करने लगें, तो स्थानीय केंद्रीय बैंक के पास मौद्रिक नीति के साधनों की प्रभावशीलता घट सकती है, जैसे ब्याज-रेट संचरण और मुद्रा जारी करने पर लाभ।
भारत के सीनियर आर्थिक अधिकारियों ने भी इसी तरह की चिंताओं को व्यक्त किया है कि डॉलर-स्टेबलकॉइन्स वैश्विक मॉनेटरी पॉलिसी के लिए जटिलताएँ ला सकते हैं।
दूसरी चुनौती रेगुलेटरी-रिस्क और वित्तीय स्थिरता से जुड़ी है। Stablecoin-इश्यूअर्स के रिज़र्व, ऑडिट और क्रेडिट-रिस्क-मैनेजमेंट पर पारदर्शिता की कमी बड़े बाजार शॉक में सेरीयल-रन या लिक्विडिटी-क्रंच का कारण बन सकती है।
इसलिए कई अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं ने इस स्पेस में कड़े नियमों की अपील की है जो कि stablecoins की वृद्धि को सीमित भी कर सकते हैं या फिर उन्हें पारंपरिक वित्त से और भी अधिक जोड़े रख सकते हैं।
तीसरा पहलू भू-राजनीति का है। डॉलर-आधारित डिजिटल संपत्ति का वैश्विक प्रसार कुछ राष्ट्रों के लिए चुनौती बन सकता है, क्योंकि यह डॉलर की वैश्विक प्रभुता और यूएस फाइनेंशियल-रुलिंग की पहुंच को और भी सुदृढ़ कर सकता है।
इसके परिणामस्वरूप कुछ देश अपना डिजिटल-रुपया या केंद्रीय-बैंक-डिजिटल-करेंसी (CBDC) विकसित करने की गति बढ़ा रहे हैं ताकि घरेलू वित्तीय प्रणालियाँ सुरक्षित रहें।
निष्कर्ष
नेलवाल की भविष्यवाणी कि अल्प से मध्यम अवधि में डॉलर और मजबूत हो सकता है, तकनीकी, संस्थागत और नियामकीय रुझानों से संगत दिखती है।
पर यह भी सच है कि अंतिम परिणाम नीतिगत प्रतिक्रिया, रिज़र्व-नियम और वैश्विक आर्थिक संतुलन पर निर्भर करेगा।
भारत जैसे बाजारों के लिए चुनौती यह होगी कि वे डिजिटल नवाचार को अपनाएँ बिना अपनी मौद्रिक संप्रभुता और वित्तीय स्थिरता को खतरे में डाले और यही नीति-निर्माताओं के समक्ष सबसे बड़ा विवेकपूर्ण सवाल है।
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