भारतीय रुपया (INR) ने दिसंबर की शुरुआत में तीव्र गिरावट दिखाई और अनेक सत्रों में रिकॉर्ड नये निचले स्तर छुए। 90 के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर 90.4 के आसपास तक पहुंच गया। यह गिरावट एक अलग तरह के संयोजन से आयी विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (FPIs) द्वारा बड़े पैमाने पर निकासी, निर्यात आधारित नुकसान और वैश्विक स्तर पर डॉलर की मजबूती। आरबीआई ने पहले मज़बूती के लिए हस्तक्षेप किया था, पर अब इसका रुख 'अति-चरम अस्थिरता' पर रोक लगाने तक सीमित दिखता है।

रुपया क्यों कमजोर हो रहा है? प्रमुख बाहरी और घरेलू कारण

1. विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की भारी निकासी

2025 में FPIs ने भारतीय इक्विटी बाजार से अरबों डॉलर निकाले, जिससे विदेशी मुद्रा प्रवाह अचानक घटा और विनिमय दर पर भारी दबाव पड़ा।

2. निर्यात में बाधाएँ और चालू खाते पर दबाव

नीतिगत अनिश्चितता, निर्यात-शुल्क और वैश्विक मांग में गिरावट ने चालू खाते को चौड़ा किया। इससे डॉलर की मांग बढ़ी और रुपया कमजोर हुआ।

3. आरबीआई के विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट

हालिया महीनों में रिज़र्व घटने से RBI के हस्तक्षेप की क्षमता सीमित हुई है।

4. डॉलर की वैश्विक मजबूती और जोखिम-अस्वीकृति

अमेरिकी ब्याज दरों और फेडरल रिज़र्व के रुख को लेकर बढ़ती अनिश्चितता ने उभरते बाजारों से पूँजी बाहर निकाली, जिसमें भारत भी शामिल है।

बाज़ार-प्रतिक्रिया और प्रावधान

रुपए के कमजोर पड़ने से निकट अवधि में कई तात्कालिक प्रभाव दिखाई दे रहे हैं। आयात लागत बढ़ रही है, खासकर कच्चे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों के लिए, विदेशी करज़ के रुपया समतुल्य भुगतान महंगे हुए हैं और कर्ज़ग्रस्त कंपनियों की मार्जिन दबाव के संकेत मिले हैं। साथ ही, हेजिंग गतिविधियाँ तेज़ हुईं, फारवर्ड प्रीमियम बढ़े और फॉरवर्ड बुकिंग की लागत बढ़ गई, जो आयातकों की लागत को और बढ़ाती है।

नीतिगत विकल्प और आरबीआई का रुख

रिपोर्टों के अनुसार आरबीआई अब हर गिरावट पर हस्तक्षेप करने की बजाय अत्यधिक अस्थिरता को नियंत्रित करने पर केन्द्रित है। यह रणनीति विदेशी भंडार को बचाए रखने और दीर्घकालिक संतुलन के इरादे को दर्शाती है। बैंक-विश्लेषक यह भी कहते हैं कि यदि पूँजी प्रवाह में सुधार न हुआ या व्यापार संतुलन बिगड़ा तो बाजार दबाव जारी रह सकता है; बैंकों और निगमों को विनिमय-जोखिम के लिये और अधिक हेजिंग अपनाने की सलाह दी जा रही है।

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क्या रुपया और गिरेगा? विश्लेषकों की राय

विश्लेषकों की राय विभाजित है। कुछ का मानना है कि अगर यूएस-भारत व्यापार समझौता शीघ्र न बना और विदेशी निवेश बहिर्वाह जारी रहा, तो रुपया 91–92 तक दब सकता है। वहीं, एक सर्वे यह भी सूचित करता है कि तीन महीने के भीतर कुछ सुधार की संभावना है यदि वैश्विक प्रवाह सामान्य हुए और व्यापार समझौते स्पष्ट हुए। इसलिए निकट-समय में उच्च अस्थिरता की उम्मीद रखें, पर मध्यम अवधि में अर्थव्यवस्था की मजबूत बुनियादी स्थिति रिकवरी का आधार हो सकती है।

निजी और कारोबारी परामर्श

निज़ी निवेशकों और आयात-उद्योगों के लिये सलाह है कि वे मुद्रा-जोख़िम के लिये सक्रिय हेजिंग रणनीति अपनाएँ, विदेशी ऋण-शेड्यूल पर पुनर्विचार करें और लागत-स्थानांतरण की संभावनाएँ देखें। नीति निर्माताओं के लिये प्राथमिकता विदेशी-निधियों को बनाए रखना, निर्यात-पक्ष सुधारों को तेज करना और निवेशकों का विश्वास बहाल करने हेतु विशिष्ट नीतिगत संकेत देना है।

निष्कर्ष

रुपया का हालिया कमजोर होना केवल घरेलू नीतियों का परिणाम नहीं है। यह वैश्विक डॉलर-लहरी, बड़ी-पैमाने पर पूँजी निकास और व्यापार-अनिश्चितता का संगम है। जबकि आरबीआई ने अब संरक्षण की सीमाएँ निर्धारित कर ली हैं, दीर्घकालिक सुधार के लिये विदेशी निवेश बहाली, व्यापार संतुलन सुधार और वैश्विक माहौल का अनुकूल होना ज़रूरी है। निवेशकों और नीति-निर्माताओं को रणनीतिक, पारदर्शी और समयोचित कदम उठाने होंगे ताकि अस्थिरता से अर्थव्यवस्था व जनता पर अनावश्यक बोझ न पड़े।


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