क्रिप्टो में निवेश करने वालों के लिए टैक्स एक बहुत बड़ा कारण बनकर उभरा है। स्पॉट ट्रेड पर लगने वाला एक प्रतिशत TDS (स्रोत पर कर कटौती) लगातार पूंजी की दक्षता को कम कर रहा है, जबकि फ़्यूचर्स पर ऐसा कोई प्रावधान लागू नहीं है। इसी वजह से, सक्रिय ट्रेडर्स तेज़ी से डेरिवेटिव्स की ओर आकर्षित हुए हैं। अब यह तेज़ी केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (CBDT) की नज़र में आ गई है, जिसने फ़्यूचर्स और क्रॉस-बॉर्डर लेन-देन की गहन जाँच शुरू कर दी है।
क्या ख़ास है फ़्यूचर्स में?
कम पूंजी से बड़ा एक्सपोजर, कीमतों में गिरावट आने पर भी मुनाफा कमाने की सुविधा (शॉर्टिंग), रिस्क को मैनेज करने के लिए हेजिंग और कम लेन-देन फ़ीस जैसी ख़ासियतों ने फ़्यूचर्स को प्रो-ट्रेडर्स और सक्रिय रिटेल निवेशकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय बना दिया है। बाज़ार में बढ़ी हुई कीमतों और उतार-चढ़ाव के दौरान ये तरीके रिस्क को बेहतर ढंग से मैनेज करने में मदद करते हैं।
वॉल्यूम में बड़ा उछाल, पर क्या है चुनौती?
जहाँ कुछ भारतीय क्रिप्टो प्लेटफ़ॉर्म अपना रोज़ाना का वॉल्यूम सार्वजनिक नहीं करते, वहीं उद्योग के जानकारों का कहना है कि बड़े प्लेटफ़ॉर्म पर फ़्यूचर्स का वॉल्यूम हाल ही के महीनों में स्पॉट वॉल्यूम से कम से कम तीन गुना हो गया है।
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फ़्यूचर्स वॉल्यूम बढ़ने से कुछ ख़ास चुनौतियाँ भी सामने आ रही हैं
बाज़ार में अस्थिरता: लीवरेज्ड पोज़ीशन की वजह से लिक्विडेशन की एक श्रृंखला बाज़ार की स्थिरता को प्रभावित कर सकती है। जब कुल वॉल्यूम का ज़्यादातर हिस्सा फ़्यूचर्स का होता है, तो बाज़ार में अस्थिरता भी तेज़ी से फैलती है। वैश्विक डेटा भी यही दिखाता है कि जब डेरिवेटिव्स में उछाल आता है, तो जोखिम भी उसी हिसाब से बढ़ता है।
ग्रे-ज़ोन में काम: प्रमुख ब्रोकरेज हाउस के प्रमुखों ने भी बताया कि घरेलू क्रिप्टो F&O (फ़्यूचर्स एंड ऑप्शंस) कम टैक्स और ज़्यादा लीवरेज की वजह से एक ग्रे-ज़ोन में काम कर रहे हैं। इसका मतलब है कि उपभोक्ता सुरक्षा, सेटलमेंट और पारदर्शिता के नियम अभी तक स्पष्ट नहीं हैं।
जानकारी का अभाव: एक्सचेंजों द्वारा सीमित जानकारी देने से नीति बनाने वालों और निवेशकों, दोनों के लिए जानकारी की कमी बनी रहती है। बाज़ार के स्थिर विकास के लिए मानक वॉल्यूम या ओपन-इंटरेस्ट रिपोर्टिंग ज़रूरी होगी।
आगे क्या हो सकता है?
टैक्स में बदलाव: अगर स्पॉट पर लगने वाले TDS के नियमों में ढील दी जाती है, तो फ़्यूचर्स और स्पॉट के बीच का संतुलन कुछ हद तक वापस आ सकता है। वहीं, अगर फ़्यूचर्स पर भी TDS या स्रोत-रिपोर्टिंग शुरू हो जाती है, तो इसका आकर्षण कम हो सकता है।
जोखिम प्रबंधन: संभावित सीमा-निर्धारण, मार्जिन नियम और उपयुक्तता आकलन जैसे उपायों से बाज़ार का जोखिम कम हो सकता है, खासकर तब जब फ़्यूचर्स वॉल्यूम मुख्य केंद्र बन चुका है।
पारदर्शिता: ओपन-इंटरेस्ट, फंडिंग-रेट और लिक्विडेशन डेटा को सार्वजनिक करने से नीति बनाने और निवेशकों को जागरूक करने में मदद मिलेगी। इससे स्पॉट डिस्कवरी भी मज़बूत होगी।
निष्कर्ष
भारत में "स्पॉट-प्रमुखता" से "फ़्यूचर्स-प्रमुखता" की ओर यह बदलाव सिर्फ ट्रेडर्स की पसंद का मामला नहीं है। यह टैक्स से जुड़ी छूट, लीवरेज की उपलब्धता और अस्थिरता के समय रणनीतिक तरीकों की बढ़ती मांग का मिला-जुला परिणाम है। भविष्य में नीतिगत संकेत (जैसे TDS, प्रकटीकरण, लीवरेज पर सीमा) तय करेंगे कि यह संतुलन स्थायी होता है या स्पॉट की ओर वापस लौटता है। फ़िलहाल के लिए, तथ्य साफ हैं — घरेलू प्लेटफ़ॉर्मों पर फ़्यूचर्स वॉल्यूम, स्पॉट से कई गुना आगे निकल चुका है।