पिछले कुछ महीनों में 'रुपे-स्टेबलकोइन' यानी ऐसे डिजिटल टोकन जो भारतीय रुपए के मूल्य से स्थिर रखे जाएँ और जिनका नियमन आरबीआई के अधीन हो, पर बहस तेज हुई है।
इसके समर्थन में तर्क यह है कि एक भरोसेमंद, नियमन-आधारित स्टेबलकोइन रेमिटेंस, माइक्रोपेमेंट और ऑन-चेन ट्रेडिंग को तेज कर सकती है; विरोध में आरबीआई और नीति-निर्माताओं की चिंता है कि निजी स्टेबलकोइन्स मौद्रिक नीतियों, वित्तीय स्थिरता और देश की नीतिगत संप्रभुता पर दबाव डाल सकते हैं।
आरबीआई के उच्च पदाधिकारियों ने स्पष्ट किया है कि अनबैक्ड क्रिप्टो की कोई आंतरिक वैधता नहीं और स्टेबलकोइन्स से नीतिगत संप्रभुता का खतरा बन सकता है तथा केंद्रीय बैंक डिजिटल करेंसी (CBDC) यानी e-रुपे जैसे सरकारी विकल्पों को प्राथमिकता दी जा रही है।
वैश्विक संदर्भ में भी बदलाव
कुछ देशों ने निजी-क्षेत्र के डॉलर-समर्थित स्टेबलकोइन को कानूनी ढाँचे में जगह देने की पहल की है, जिससे भुगतान-उद्योग में नवाचार की राह खुल सकती है।
भारत का विकल्प जटिल है । यहाँ CBDC का पायलट और विस्तार हो रहा है, सरकार और आरबीआई क्रिप्टो संपत्तियों के प्रति सतर्क है। सितंबर 2025 के एक दस्तावेज़ और रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि केंद्र सरकार व्यापक क्रिप्टो विधेयक पर पूरी तरह खुलकर आगे नहीं बढ़ना चाहती और आंशिक निगरानी व सख्ती बरकरार रखने की ओर झुक सकती है, क्योंकि प्रणालीगत जोखिमों का डर बना हुआ है।
रुपे-स्टेबलकोइन के संभावित फायदे
रुपे-स्टेबलकोइन के संभावित फायदे तकनीकी और आर्थिक दोनों हैं। तकनीकी पक्ष पर ब्लॉकचेन-आधारित टोकन से पेमेंट का समय, लागत और पारदर्शिता बेहतर हो सकती है।
क्रॉस-बॉर्डर रिमिटेंस में तेज निपटान और कम शुल्क संभव है। आर्थिक पक्ष पर, एक सही बैकिंग और आरबीआई-नियमन वाली स्टेबलकोइन से डिजिटल समावेशन और छोटे व्यापारों के लिए तत्काल भुगतान सुविधा मिल सकती है।
इसके अलावा, यदि यह अंतरराष्ट्रीय रूप से स्वीकार्य हो जाए तो रुपे का डिजिटल स्वरूप ग्लोबल पेमेंट्स में उपयोगिता बढ़ा सकता है।
परन्तु भी जोखिम कम नहीं है। निजी स्टेबलकोइन्स यदि बड़े पैमाने पर अपनाए गए तो वे बैंकों और केंद्रीय बैंक के संतुलन में हस्तक्षेप कर सकते हैं। जमा पलायन, तरलता झटके और मौद्रिक नीति के संचालन में जटिलताएँ आ सकती है।
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इसलिए नीति-निर्माताओं का मानना है कि यदि स्टेबलकोइन को अनुमति देनी है तो उसे कड़ाई से आरबीआई की निगरानी, पूर्ण आरक्षित-बैकिंग, ऑडिट-रिपोर्टिंग, त्वरित रिडीम्प्शन और कड़ा AML/KYC लागू कर के ही होना चाहिए।
यह भी जरूरी है कि ऐसे टोकन e-रुपे जैसे CBDC से प्रतिस्पर्धा में न आएँ बल्कि इंटरऑपरेबल हों।
नीति विकल्पों में तीन प्रमुख मार्ग दिखते हैं:
निजी स्टेबलकोइन्स पर पूर्ण प्रतिबंध जो नवाचार दबा सकता है;
हल्का नियमन जो जोखिमों को बढ़ा सकता है; और
संरचित, आरबीआई-लाइसेंसिंग मॉडल जहाँ कुछ भरोसेमंद संस्थाओं को सख्त शर्तों पर जारी करने की अनुमति हो।
तीसरा विकल्प व्यवहारिक संतुलन प्रस्तुत करता है: जारीकर्ता के लिए कैपिटल, 1:1 फिएट रिज़र्व, नियमित पारदर्शी ऑडिट, भुगतान-सिस्टम इंटीग्रेशन और केन्द्र सरकार के AML मानदंड आवश्यक होने चाहिए। साथ ही आरबीआई को यह सुनिश्चित करना होगा कि स्टेबलकोइन-विकास से e-रुपे के उपयोग और मौद्रिक नियंत्रण पर विपरीत प्रभाव न पड़े।
अंततः सवाल यह है कि क्या यह विचार अब वक़्त के साथ मेल खा गया है? उत्तर है संयमित 'हाँ’ पर शर्तों के साथ। तकनीकी और आर्थिक लाभ वास्तविक हैं, मगर केवल तब जब आरबीआई की निगरानी, स्पष्ट कानूनी रूपरेखा और अंतरराष्ट्रीय सहयोग मौजूद हो।
बिना सख्त विनियमन के निजी स्टेबलकोइन्स प्रणालीगत जोखिम पैदा कर सकते हैं; वहीं यदि नियमन विवेकपूर्ण और पारदर्शी हो, तो एक नियमन-आधारित रुपे-स्टेबलकोइन भारत को डिजिटल भुगतान और अंतरराष्ट्रीय सेटेलमेंट में भागीदार बना सकता है।
आरबीआई की प्राथमिकता अभी भी CBDC पर है, इसलिए किसी भी निजी स्टेबलकोइन मॉडल को आरबीआई के साथ तालमेल और अंतर-प्रणालीक इंटरऑपरेबिलिटी की गारंटी देनी होगी।
निष्कर्ष
रुपे-स्टेबलकोइन्स का विचार तभी 'समय के अनुरूप' कहा जा सकता है जब वे पूर्ण आरक्षित-बैकिंग, सख्त ऑडिट, आरबीआई-लाइसेंसिंग, और CBDC-इंटरऑपरेबिलिटी जैसी शर्तों के तहत आएँ।
नीति निर्माताओं को नवाचार और वित्तीय स्थिरता के बीच संतुलन बनाकर ही अगला कदम उठाना चाहिए, अन्यथा जोखिमों का बोझ अर्थव्यवस्था और मौद्रिक नीति पर बढ़ सकता है।
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